उम्मीद दो : आपकी बिटिया टीना है या सुरभि? तलाशिएगा जरुर

टीना बहुत निराश थी| उसने अपनी दोस्त सुरभि से कहा कि यार इस बार पापा ने दीवाली पर सिर्फ दो हजार रुपए देने का वायदा किया है| सुरभि ने उसे गले लगा लिया| बोली-दीवाली पर दो हजार की पाकेट मनी..यार तू कितनी लकी है| टीना भड़क उठी...इसमें लकी जैसा क्या है? आजकल होता क्या है दो हजार में? सुरभि ने कहा-दो हजार में तो मैं सारे जहाँ की खुशियाँ एक साथ खरीद लूँ| मम्मी के लिए नई कड़क साड़ी, अपने लिए सूट, अंकित के लिए ढेर सारे गुब्बारे और तीन-चार महीने की स्कूल फीस भी भर दूँगी मैं दो हजार रुपयों से...
दिनेश पाठक

टीना बोली...सुरभि यार तू अपना भाषण बंद कर| तुझे पता भी है कुछ पटाखे की एक लड़ी भी तीन-तीन हजार के आते हैं| चार दोस्तों के साथ सीसीडी बैठ जाओ, दो हजार का पता नहीं चलता| हे टीना! हमारी काफ़ी तो दो रुपए की पुड़िया से बनती है| पता है मम्मी दूध उबालती है चीनी मिलाकर| मैं उसमें दो रुपए वाली काफ़ी की पुड़िया डालती हूँ और हम तीनों बैठकर पीते हैं| कसम से इतना मजा आता है न कि तुम्हारी सीसीडी का स्वाद बेमतलब लगेगा, अगर किसी दिन मेरी मम्मी के हाथ की काफी पी लोगी| टीना ने कहा-अभी तो मुझे पहले पापा से लड़ाई करनी है| दीवाली से ठीक से मनानी है फिर तुम्हारे घर भी आऊँगी और काफ़ी भी पियूँगी|
टीना और सुरभि की बातें पढने के बाद आप समझ गए होंगे कि दो हजार रुपए किसी के लिए क्यों कुछ भी मायने नहीं रखता और किसी के लिए वही दो हजार कैसे जीवन में बदलाव का, ख़ुशी का महत्वपूर्ण कारक बन जाता है| इसका मतलब साफ़ है कि मामला नजरिए का है| लालन-पालन का है| क्योंकि टीना और सुरभि हैं तो दोस्त| हम उम्र भी| हमारे समाज का सच है यह| हर गली, मोहल्ले में ऐसी कहानियाँ आम हैं| लेकिन तय मानिए सुरभि के पास पैसे भले न हों लेकिन उसके पास सकारात्मक सोच है, जो उम्मीद पैदा करती है| इस सोच के साथ जीने वाले किसी भी व्यक्ति का जीवन जीने का नजरिया एकदम अलग होता है| उसे तकलीफें भी न के बराबर होती हैं लेकिन टीना जैसे-जैसे बड़ी होगी, उसकी तकलीफ़ बढ़ेगी क्योंकि उसे अपने पापा से बहुत ज्यादा उम्मीद है| होनी भी चाहिए उम्मीद पापा से, इसमें कोई बुराई भी नहीं है| लेकिन टीना की यह सोच गलत है| इसे ही नकारात्मक सोच कहते हैं| इस सोच के लोगों से उम्मीद भी नाउम्मीद होती दिखती है|

अगर जीवन से कुछ भी उम्मीद रखना है, बच्चों से उम्मीद रखना है तो उनमें सकारात्मक सोच के बीज रोपने की जरूरत है| अगर इसका सही रोपण नहीं हो पाया तो तय मानिए कि हमारी पीढ़ी संकट में ही रहेगी| सोच का यही मजबूत आधार है| उम्मीदें यहीं से बनती और बिगड़ती हैं| सोच केवल भाषण से नहीं बदली जा सकती| इसमें मददगार हो सकती है महापुरुषों की जीवनी| मददगार होते हैं समाज के उदाहरण| बच्चों के लालन-पालन में थोड़ी सी सख्ती, थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा दुलार, थोड़ी सी फटकार, सबका सामंजस्य बनता है तो सोच भी सकारात्मक बनती है| बच्चे को खुली छूट किसी भी चीज की नहीं दी जानी चाहिए अन्यथा उम्मीदों के टूटने की शुरुआत यहीं से होती है| छूट देनी है तो मैदान में खेलने की दीजिए| रिश्तों को मजबूत बनाने की दीजिए| गुरु, बड़ों का सम्मान करने की दीजिए| एक अंतिम बात, पैसा जितना भी हो आपके पास, पर बच्चे को हरदम इस बात का एहसास होना चाहिए कि उसकी फीस, कॉपी-किताब, अन्य जरूरतों के लिए आने वाली रकम मम्मी-पापा बहुत मेहनत से लाते हैं| बस फिर दिक्कतें ख़त्म, उम्मीदें शुरू|

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